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संघ-भाजपा और जेएनयू

संघ-भाजपा को जेएनयू और सामाजिक विज्ञानों से नफरत क्यों है?

पिछले दिनों नकाबपोश हमलावरों को जेएनयू में बिना किसी रोक-टोक के प्रवेश करने दिया गया. उनके हमले में कई विद्यार्थी और शिक्षक घायल हुए. इस घटना ने भाजपा के शासनकाल के एक नए अध्याय की शुरूआत की. यह सरकार शायद जेएनयू और कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में ताले डलवाना चाहती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को ऐसे विश्वविद्यालय कतई रास नहीं आ रहे हैं जिनमें सामाजिक विज्ञानों का गंभीर पठन-पाठन होता है.
इस हमले में विश्वविद्यालय विद्यार्थी संघ की अध्यक्ष आइशी घोष और कुछ शिक्षकों समेत लगभग 35 लोग घायल हुए. दर्जनों हथियारबंद नकाबपोशों का जेएनयू में घुसना और वहां तांडव मचाना, विश्वविद्यालयों में बाहुबल के इस्तेमाल की शुरुआत है. यही वे विश्वविद्यालय हैं जो नए ज्ञान के सृजन के ज़रिए भारत के लोगों के जीवन में परिवर्तन लाना चाहते हैं. इसके विपरीत, कुछ अन्य लोग हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं और वह भी ऐसे मुस्लिम देशों की राह पर चल कर जिन्होंने सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी गंभीर तार्किक विमर्श की इजाजत नहीं दी, जो पारंपरिक आस्थाओं को चुनौती देता हो और मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता की बात करता हो.
प्रजातंत्र के एक राजनैतिक प्रणाली के रूप में उभरने के पहले तक पूरी दुनिया में विश्वविद्यालय, शैक्षणिक ढांचे का हिस्सा नहीं थे. जनाधिकारों, चुनाव, आधुनिक बाज़ार व नए सांस्कृतिक मंच, दुनिया को विश्वविद्यालयों की ही देन हैं. विश्वविद्यालयों ने दुनिया के विविध निवासियों के ज्ञान के संसाधनों का संश्लेषण किया. 
भारत में विश्वविद्यालयों में गंभीर शिक्षण, तुलनात्मक रूप से काफी देर से शुरू हुआ. यहाँ के विश्वविद्यालय अब तक ज्ञान के उन स्रोतों को नहीं पकड़ सके हैं जो आदिवासियों, दलितों, ओबीसी और उच्च-शूद्र कृषक समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं में बिखरे पड़े हैं. अब तक हमारे विश्वविद्यालयों में शोध पश्चिमी ज्ञान या पौराणिकी पर केन्द्रित रहा है. परन्तु जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में उत्पादक जातियों के विद्यार्थियों के प्रवेश से इस स्थिति में बदलाव अपेक्षित है.  
हम नालंदा को भारत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय मानते हैं. परन्तु वह आज के आधुनिक विश्वविद्यालयों से इन अर्थों में भिन्न था कि वहां न तो मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से संबंधित धर्मनिरपेक्ष विचारों का संश्लेषण होता था और ना ही उन्हें युवा शिक्षित व्यक्तियों को संप्रेषित किया जाता था. देश के पहले आधुनिक विश्वविद्यालय यूनिवर्सिटी ऑफ मद्रास की स्थापना 1857 में मद्रास में हुई थी. इस प्रकार, भारत में विश्वविद्यालयी शिक्षा का इतिहास केवल 163 वर्ष पुराना है. परन्तु अब तक विश्वविद्यालयों का ढांचा मूलतः ब्राह्मणवादी रहा है और वे देशज ज्ञान के वाहक नहीं बन सके हैं. यह स्थिति अब धीरे-धीरे बदल रही है. 
आज भारत में 689 विश्वविद्यालय हैं. आरएसएस और भाजपा इस तथ्य से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि देश के विश्वविद्यालयों में जेएनयू सर्वश्रेष्ठ है. सामाजिक विज्ञानों के अध्यन-अध्यापन में जेएनयू की उत्कृष्टता जग-जाहिर है. यद्यपि इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1970 के दशक की शुरुआत में हुई थी, परन्तु इस अल्पावधि में भी उसने अनेक उत्कृष्ट समाजविज्ञानियों, नेताओं और नौकरशाहों को गढ़ा. संघ-भाजपा का मानना है कि चूँकि यह विश्वविद्यालय गुणात्मक शिक्षा – विशेषकर सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में – प्रदान करता है इसलिए यह खतरनाक है और इसलिए वे इसे कम्युनिस्ट या कम्युनिस्टों का विश्वविद्यालय कहते हैं.  
सामाजिक विज्ञान में रूचि रखने वाला देश का शायद ही कोई ऐसा विद्यार्थी होगा जो जेएनयू में पढना नहीं चाहता होगा. मैंने भी इस विश्वविद्यालय में भर्ती होने का असफल प्रयास किया था.   
मैं सन् 1976 में हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में एमए अंतिम वर्ष का छात्र था. उस समय, एमफिल और पीएचडी करने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए जेएनयू में प्रवेश पाना सबसे बड़ा सपना हुआ करता था. मेरा भी यही सपना था और इसे पूरा करने के लिए मैंने कर्ज लिया और अपने जीवन में पहली बार दिल्ली पहुंचा. मुझे इसके लिए जितना प्रयास करना पड़ा उतना शायद उच्च-मध्यम वर्ग के विद्यार्थियों को ऑक्सफ़ोर्ड या हार्वर्ड में दाखिला लेने के लिए भी नहीं पड़ता. परन्तु मैं वहां प्रवेश नहीं पा सका. मुझे ऐसा लगा कि मैंने अपने जीवन में बहुत कुछ खो दिया है. आज भी देश का कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं हैं, जहाँ विद्यार्थियों को उस तरह का गंभीर अध्ययन करने, बहसों में भाग लेने और पूरी दुनिया के विद्वानों के संपर्क में आने का मौका मिलता हो, जो उन्हें जेएनयू में आसानी से मिल जाता
संघ-भाजपा मानते हैं कि जेएनयू एक कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय है, जो धर्मों, विशेषकर हिन्दू धर्म, के ग्रंथों में संचित ज्ञान को तनिक भी महत्ता नहीं देता. और इस विश्वविद्यालय की सामाजिक विज्ञानों के अध्यन-अध्यापन की संस्कृति उनके लिए एक बड़ा खतरा है. मध्यपूर्व के इस्लामिक देशों के कई मुस्लिम नेता भी विश्वविद्यालयों के बारे में ठीक यही सोचते हैं और इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके देशों में ऐसा कोई विश्वविद्यालय न हो जो धर्म की चहारदीवारी को पार कर, सामाजिक प्रणालियों का अध्ययन करे. मध्यपूर्व के कई मुस्लिम नेता यह भी मानते हैं कि सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन. कम्युनिस्ट विचारधारा को प्रोत्साहित करता है.  
जो बात संघ-भाजपा के नेता समझ नहीं पा रहे हैं वह यह है कि राष्ट्र का विचार; यह विचार कि मानव समाज को इस प्रकार संगठित किया जा सकता जिससे मनुष्यों को बेहतर जीवन जीने का मौका मिल सके, विश्वविद्यालयों की शिक्षा की ही देन है. मनुष्यों के जीवन स्तर को कैसे बेहतर किया जा सकता है, इस सम्बन्ध में गंभीर धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष अध्ययन विश्वविद्यालयों में ही हुए हैं.
संघ-भाजपा मानते हैं कि तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा पर्याप्त है क्योंकि जो लोग ऐसी शिक्षा प्राप्त करते हैं वे अपने धार्मिक आचरणों को यथावत रखते हैं और वैज्ञानिक उपकरणों का उपयोग मनुष्यों के संगठन पर विचार करने के लिए नहीं करते. यह सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन के कारण ही है कि विश्वविद्यालय इस संगठन के ढांचे को बदल सके हैं. सामाजिक विज्ञानों के गंभीर अध्ययन और शिक्षण के बिना, किसी भी राष्ट्र की राजनैतिक संस्थाओं, मीडिया के ढांचे और यहाँ तक कि चिकित्सा और इंजीनियरिंग संस्थाओं का विकास नहीं हो सकता था.   
जिन महान यूरोपीय चिंतकों के विचारों को हम आज सहज और स्वाभाविक मानते हैं, उनका विकास सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में तीखे विवादों से हुआ. उन्होंने धार्मिक शिक्षाओं, उत्पादन प्रणालियों और विभिन्न मानव विभूतियों के जीवन की ऐसी सकारात्मक व्याख्या की जो उस व्याख्या से एकदम अलग थी जो हमें धार्मिक ग्रंथों से प्राप्त हुई थी. इसे तथ्यवाद (पॉजिटिविज्म) कहा जाता है. उदाहरण के लिए, 19वीं सदी के एक प्रमुख चिन्तक जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल ने ईसा मसीह पर एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था ‘द लाइफ ऑफ़ जीसस’. उन्होंने ईसा मसीह की शिक्षाओं से ऐसे निष्कर्ष निकाले जो शायद कोई अन्य धर्मशास्त्री निकाल सकता था.  
हेगेल के अनुसार, अंधी आस्था से परे हो विवेक और तर्क को अपने साथी बनाने का विचार ईसा मसीह ने प्रतिपादित किया था. वे ईसा ही थे जिन्होंने ईश्वर के साम्राज्य की आध्यात्मिक नागरिकता के विचार को प्रस्तुत किया. आत्मा – जो शरीर और गतिशील विश्व से भिन्न है –  का हेगेल का सिद्धांत ईसा मसीह की शिक्षाओं से ही लिया गया था. 
हेगेल, ईसा मसीह के इस कथन से बहुत महत्वपूर्ण सैद्धांतिक सबक सीखते हैं कि, “मनुष्य के रूप में मनुष्य केवल विषयासक्त प्राणी नहीं है; उसकी प्रकृति ऐसी नहीं है कि वह केवल आनंद देने वाले आवेगों तक स्वयं को सीमित रखे. उसकी आत्मा भी है, जो उसे एक तार्किक प्राणी होने के कारण, ईश्वरीय मूलतत्त्व  से विरासत में मिली है.” ईसा मसीह के इन्हीं विचारों के आधार पर हेगेल ने विवेक, आत्मा और द्वंद्ववाद सम्बन्धी अपने सिद्धांत विकसित किए. 
यह सही है कि भारतीय विश्वविद्यालयों से अब तक ऐसे गंभीर अध्येता नहीं निकले हैं जो भारतीय पौराणिक / धार्मिक ग्रंथों की पुनर्व्याख्या कर सकें. केवल डॉ. बी.आर. आंबेडकर ऐसा कर सके और उनके निष्कर्षों से संघ-भाजपा के नेता और अध्येता सहमत नहीं हैं. मनु के बारे में उनकी सोच और लेखन, संघ-भाजपा के नेताओं के सोच की विपरीत थी. प्राचीन भारत की ब्राह्मणवादी परंपरा के सम्बन्ध में इस तरह के निष्कर्ष पर कोई कम्युनिस्ट ब्राह्मण अध्येता भी आज तक नहीं पंहुचा है. विश्वविद्यालयों के सामाजिक विज्ञान विभागों से आंबेडकर जैसे कई अध्येता निकल सकते हैं, यह आशंका उन्हें परेशान कर रही है. 
आंबेडकर, महात्मा गाँधी और वी.डी. सावरकर ने उन्हीं ग्रंथों का अध्ययन किया, परन्तु वे भिन्न-भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचे. आंबेडकर के विपरीत, गाँधी और सावरकर समाज-विज्ञानी नहीं थे. गांधी ने अपने अध्ययन के आधार पर अहिंसा का वरण किया और सावरकर ने हिंसा का. दोनों जब लन्दन में कानून (राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र की नहीं)  की पढ़ाई कर रहे थे तब उनमें गंभीर मतभेद थे. 
संघ-भाजपा की एक चिंता यह भी है कि इन दिनों धनी परिवारों और उच्च जातियों के युवा उनकी विचारधारा के रक्षा करने के लिए सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन को और आकर्षित नहीं हो रहे हैं. नतीजा यह कि सामाजिक विज्ञानों के अध्येताओं में शूद्र / ओबीसी / दलित / आदिवासियों की बहुलता हो गयी है. उनको लगता है कि ये लोग अगर सामाजिक विज्ञानों और हिन्दू धर्मग्रंथों का गंभीर अध्ययन करेंगे तो कहीं वे उन्हीं निष्कर्षों पर न पहुँच जायें, जिन पर डॉ आंबेडकर पहुंचे थे. इसलिए, सामाजिक विज्ञानों में उच्च शिक्षा – विशेषकर जेएनयू जैसे गंभीर विश्वविद्यालयों में – का सत्यानाश करने पर वे आमादा हैं. 
मुस्लिम मुल्ला भी सामाजिक विज्ञानों के बारे में ऐसी ही सोच रखते हैं. उन्हें भी लगता है कि कुरान का विवेक और तर्क पर आधारित अध्ययन उनके लिए समस्याएं खड़ी कर देगा.  
परन्तु वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जब धार्मिक ग्रंथों का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से गंभीर अध्ययन किया जाएगा तब उससे कई नयी व्याख्याएं उभरेंगीं और इससे ‘सामाजिक विवेक’ का विकास होगा. यही सामाजिक विवेक, विज्ञान और तकनीकी की विकास की राह प्रशस्त करेगा. पश्चिम में भी बाइबिल और ईसाई धर्म के इतिहास का गंभीर अध्ययन हुआ, परन्तु उससे वहां ईसाई धर्म समाप्त नहीं हो गया.
जेएनयू के विद्यार्थियों और अध्यापकों पर हालिया सुनियोजित हमला, भारत में विश्वविद्यालयी शिक्षा की घड़ी के कांटों को उल्टा घुमाने का प्रयास है. संघ-भाजपा नेता यह मानते हैं कि विश्वविद्यालयों में जो कुछ होता है, उसका आम जनता के वोटों पर कोई असर नहीं पड़ता. परन्तु उन्हें यह याद रखना चाहिए की जिस दिन विश्वविद्यालय ढह जाएंगे, उसी दिन देश में प्रजातंत्र, अर्थव्यवस्था और आधुनिक सामाजिक प्रणाली के ढहने की शुरुआत भी हो जाएगी. हम मध्यकाल में वापस चले जाएंगे और शायद मध्य-पूर्व के कई देशों की तरह, हमें भी अधिनायकवादी शासन के अधीन जीना पड़ेगा. 
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/नवल) 
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जेएनयू को विश्वविद्यालय से स्कूल बनाने की तैयारी

शीतकालीन सत्र से जेएनयू के सभी छात्रों को अनिवार्य” हाजरी देनी होगी। जेएनयू प्रशासन ने 22 दिसम्बर के रोज़ एक सर्कुलर जारी किया हैजिसमें कहा गया है कि स्नातकस्नातकोतर छात्रों ही नहीं, बल्कि एमफिल और पीएचडी शोधार्थी को भी अपनी लाज़मी हाजरी देनी होगी। कई छात्रों ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि क्या कुलपति जगदीश कुमार जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को स्कूल बनाना चाहते हैं”। बहुत सारे शोधार्थी कुलपति के फरमान के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं। अगर जबरन अनिवार्य उपस्थिति के लिए बाध्य किया जायेगा तो कब छात्र फिल्ड वर्क करेंगेया वे बाहर के पुस्तकालयों और लेखागार के लिए कब जा सकेंगेचर्चा तो इस बात की भी हो रही है कि शिक्षकों की उपस्थिति के लिए भी बायोमेट्रिक मशीन लगाया जाएगा। संघी प्रशासन नेकर्मचारी के बाद अब छात्र और शिक्षकोंकी नकेल कसने की पूरी तैयारी कर ली है।
जेएनयू छात्रों की शंका वाजिब है कि यदि यह संघी फरमान लागू होता है तो यह जेएनयू के आज़ाद और प्रगतिशील किरदार पर बड़ा हमला होगा और छात्रों को काफी असुविधा पहुंचाएगा। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि खौफ और पहरे के माहौल में आलोचनावादी विमर्श की गुंजाईश न के बराबर हो जाती है।
जब से हिन्दूत्वादी ताकतें 2014 से सत्ता में आई हैंइसने जेएनयू के किरदार को बर्बाद करने का कोई भी मौक़ा नहीं गवाया है। हिन्दुत्ववादी ताकतें जेएनयू को नापसंद करती हैं क्योंकि यह कैम्पसअपनी तमाम कमियों के बावजूदधर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील सोच को बढावा देता है और शोषित और दबेकुचले समूह के साथ खड़ा रहता है।
यही वजह है कि जेएनयू कुलपति जगदीश कुमार जब से अपना कार्यभार संभाले हैं तब से उन्होंने जेएनयू के किरदार पर एक के बाद एक हमला किया है अपने ही छात्र नेता को गिरफ्तार करने के लिए परिसर में पहली बार पुलिस बुलाना, गरीब और हाशिए पर खड़े समाज से आए छात्रों की बुनियादी आवश्यकता यानि छात्रवृति में कटौती करनापीएचडी की सीटों में जबर्दस्त कटौती करना, छात्रों में तथाकथित राष्ट्रीयता” और देशभक्ति” की भावना इंजेक्ट के नाम पर कैम्पस में टैंक लाने के लिए सरकार से अपील करना और अब अनिवार्य हाजरी!
विडम्बना यह है कि इन सभी हमलों को जेएनयू में “राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने के नाम पर सही ठहराया जा रहा है। तथाकथित “राष्ट्रवादी” कुलपति कुमार मगर यह भूल जाते हैं कि राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जहां “सोच पर पहरा न हो और ज्ञान को किसी बंधन में न बांधा जाए।
कई लोगों को लगता है कि जेएनयू की सुंदरता उसकी ऊंचीऊंची लाल ईमारत और अरावली की गोद में बैठे हराभरा कैम्पस में है। लेकिन मेरे लिए इसका असली हुस्न इसकी आलोचना और वादविवाद की संस्कृति में है। मैं समझता हूं कि हमारी समझदारी अक्सर क्लासरूम के बाहर ही विकसित होती है। ढ़ाबाकैन्टिन, हास्टल के अलावा आंदोलन सीखने के लिए वास्तविक जगह होता है। यह इसलिए होता है कि क्योंकि क्लासरू498+1म में शिक्षक और छात्र के बीच पावर डायनामिक्स पाया जाता है।
विडम्बना देखिए कि कुलपति जगदीश कुमार ने पूरी जिंदगी विज्ञान की पढ़ाई में लगा दी है लेकिन जब वह अपना निर्णय लेते हैं तो उसमें कहीं भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं दीखता। अगर वे ऐसा सोचते हैं कि अनिवार्य हाजरी से रिसर्च को बढ़ावा मिलेगा तो क्या वह इसे वैज्ञानिक तथ्य से साबित कर सकेंगे? क्या वह कोई ऐसा रिसर्च का हवाला दे सकते हैं जो यह साबित करे कि अनिवार्य अटैंडेंस से रिसर्च की गुणवता में सुधार होता हैक्या लाजमी हाजरी ने छात्र की विषय में रुचि बढ़ाने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैजब शिक्षाविद ओपेन लर्निंग और  परीक्षा और ग्रेड मुक्त शिक्षा की बात कर रहें हैंवहीं हमारे कुलपति, “राष्ट्रवाद” के नाम परइसके विपरीत दिशा में दौड़ रहे हैं!
कुलपति जगदीश कुमार को कौन बताए कि नीलाद्री भट्टाचार्यअभिजित पाठकनिवेदिता मेननगोपाल गुरुउत्सा पटनायकप्रभात पटनायक जैसे प्रोफेसर छात्रों के बीच इतने लोकप्रिय हैं कि उनके क्लास में बड़ी तादाद में छात्र पहुंचते हैं। जेएनयू आने से पहले ही मैं इन शिक्षकों के बारे में सुन चुका था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मेरे सीनीयर साथी इनके लेक्चर सुनने के लिए जेएनयू आते थे। ये शिक्षक हाथ में नोट्स और किताब लिए क्लास में प्रवेश करते हैं, लेकिन उनके हाथों में अब कुलपति अटैंडेंसशीट थमाना चाहते हैं। कुलपति का यह छात्रविरोधी फ़रमान इतना अलोकप्रिय है कि आरएसएस का छात्र संगठन एबीवीपी ने भी इसके विरोध में परचा जारी किया है।
कुलपति यह नहीं समझ रहे हैं कि जेएनयू में पहले से ही छात्रों को विभिन्न विषयों में कोर्स लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। तभी तो छात्र कई बार आवश्यकता से अधिक कोर्सेज को क्रेडिट” और ऑडिट” करते हैं । वे जानते हैं कि एक विषय दूसरे विषय के अध्ययन के बगैर अधूरा है। पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिए शिक्षक अपनी तरफ से अतिरिक्त क्लासेज भी लेते हैं। सभी शिक्षक तन्यमता से कार्यों को करते हैं क्योंकि वे ज्ञान और रिसर्च के महत्व को बखूबी समझते हैं। यह सब अब तक बिना अनिवार्य हाजरी के चलता आ रहा है।
इस के पीछे जो संघी साजिश है वह यह है कि प्रशासन छात्र और शिक्षक के उपर और अधिक शिकंजा कसे। इस तरह की कार्रवाई जेएनयू में प्रगतिशील राजनीति पर नकेल और आलोचनात्मक सोच पर पहरा लगाने की वजह से की गई है। यह सब छात्रोंविशेषकर एक्टिविस्ट छात्रोंके उपर नज़र रखने और उन्हे परेशान करने के लिए किया जा रहा।
दूसरी समस्या प्रशासन के बढ़ते कार्यक्षेत्र से भी है। शिक्षाविदों का मानना है कि शिक्षण संस्थानों के अंदर प्रशासन की भूमिका बेहद ही सीमित होनी चाहिए, लेकिन अफ़सोस कि जब से यह कुलपति जगदीश कुमार ने अपना कार्यभाल संभाला हैतब से ही प्रशासन की दखलअंदाजी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। यह सब करके कुलपति भले ही अपने सियासी आका को खुश कर लें और इससे अपना व्यक्तिगत स्वार्थ भी साध लें लेकिन लंबे समय के लिए इस तरह के हमले इस संस्था को बर्बाद देगा।



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संघ के निशाने पर जेएनयू



   भारत सरकार की रैंकिंग बताती है कि देश के लगभग 1000 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के टॉप तीन में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) भी शामिल है। निरंतर वह अपनी यह स्थिति बनाए हुए है। इस विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल करने वालों में से बड़ी संख्या में अकादमिक जगत तथा सरकारी क्षेत्र के सर्वोच्च विभागों में कार्यरत हैं। लेकिन, इस समय विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ इसके 7,000 छात्रों और 600 प्राध्यापकों के बीच गहरा आक्रोश व्याप्त है। और उनकी बहुत सारी शिकायतें हैं। नई दिल्ली स्थित इस कैंपस का वातावरण ‘दमघोंटू’ हो गया है। ‘जेएनयू’ की शानदार छवि को ‘मटियामेट करने की साजिश रची जा रही है।’ ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर रोक लगाई जा रही है और उसे ‘बेड़ियों में जकड़ा जा रहा है।’ उस पर ‘सुनियोजित ढंग से प्रहार’ किया जा रहा है। इस महीने की शुरुआत में 49 सांसदों ने उच्च शिक्षा मंत्री को एक सामूहिक पत्र लिखा। इस पत्र में विश्वविद्यालय के स्वरूप को ‘नष्ट’ किए जाने का आरोप लगाया गया है।

एक उच्च शिक्षा संस्थान को तबाह करने की कोशिश

विश्वविद्यालय का माहौल 2016 से ही बदतर होने लगा, जब सरकार ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रो. मामिडला जगदीश कुमार को जेएनयू के कुलपति पद पर नियुक्त किया। नए कुलपति को अपना पदभार संभाले कुछ ही दिन हुए थे कि वे विवादों के घेरे में आ गए। दरअसल, कुछ हिन्दू राष्ट्रवादी गुटों ने जेएनयू पर यह आरोप लगाया है कि यहां के छात्रों द्वारा कैंपस में एक प्रदर्शन के दौरान देशद्रोही नारे लगाए गए। यह आरोप लगाते हुए इन हिन्दूवादी गुटों ने जेएनयू पर आरोपों की बौछार कर दी। इसके चलते 10 छात्रों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया। छात्रों का बचाव करने की बजाय कुलपति प्रो. जगदीश कुमार का रवैया ऐसा रहा, जैसे- विश्वविद्यालय में वास्तव में और ज्यादा देभक्ति की भावना और अनुशासन की जरूरत हो। उन्होंने आक्रामक पूर्व-सेनाध्यक्षों तथा उन्मादी धार्मिक व्यक्तित्वों को व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। कैंपस के भीतर सैन्य गौरव का भाव जगाने के लिए एक टैंक स्थापित करने का प्रस्ताव रखा।
कुलपति जगदीश कुमार के नेतृत्व में जेएनयू प्रशासन ने किसी भी मामले में छात्रों और प्राध्यापकों से सलाह-मशविरा लेने की परंपरा को समाप्त कर दिया। अब विश्वविद्यालय का संचालन आदेशों के आधार पर हो रहा है। इन आदेशों का पालन पालन न करने पर दंड का प्रावधान किया गया है। जेएनयू एक शिक्षण संस्थान से अधिक एक शोध संस्थान है। इसके बावजूद भी वहां के प्रोफेसरों को कक्षाओं में विद्यार्थियों की उपस्थिति दर्ज करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसके साथ ही प्रोफेसरों को नियमित समय पर हाजिरी दर्ज करने का आदेश दिया गया। कोई प्रोफेसर कितने शोध-छात्रों की पीएच.डी. का निर्देशन कर सकता है, राष्ट्रीय स्तर पर लागू इस नियम को जेएनयू पर भी लागू कर दिया गया। इस तरह, जहां नए छात्रों के दाखिले में दो-तिहाई सीटों की कटौती हुई है; वहीं, शिक्षकों का समय बेकार जा रहा है। जानबूझकर उन्हें पीएच.डी. के निर्देशन से रोका जा रहा है। इन नियमों के लागू होने से जेएनयू की लम्बे समय से चलती आ रही उस नीति को बुरी तरह धक्का लगा है। जिस नीति तहत निम्न जाति और अन्य वंचित समूहों के लोगों को प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। स्नातक स्तर पर अध्ययन के लिए प्रवेश के लिए एक नई नीति बनाई गई है, जो प्रवेश परीक्षा की वर्तमान पद्धति को खत्म कर देगी। अब अत्यंत सराहनीय चुनौतीपूर्ण निबंधों का स्थान बहुविकल्पीय प्रश्न ले लेंगे।
अब उन नियमित आवेदनों की सख्ती से जांच की जाती है, जिसके तहत प्राध्यापक कॉन्फ्रेंसों में भाग लेने या जमीनी शोध-कार्य करने की अनुमति लेते थे। अब अक्सर उन आवेदनों को अस्वीकार कर दिया जाता है। एक प्रोफेसर एक प्रतिष्ठित पुरस्कार लेने बंगलौर गए। जब वह वापस आए, तो उन्हें पता चला कि उनके जाने की अनुमति पर रोक लगा दी गई है। इससे वह बुरी तरह हताश हो गए।
चार नए प्राध्यापकों ने अपनी थीसिस में काफी सामग्रियों की चोरी की है, इस तथ्य का कुछ छात्रों द्वारा खुलासा किए जाने के बावूजद भी प्रशासन की ओर से न तो कोई जांच हुई और न ही उनके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई। इसी बीच विश्वविद्यालय ने अमेरिका में बसे भारतीय राजीव मल्होत्रा ​​तथा सुभाष काक को विश्विद्यालय में मानद प्रवक्ता नियुक्त कर दिया। ये दोनों लोग भारत के बारे में पश्चिमी धारणाओं का विरोध करने तथा प्राचीन भारतीय विज्ञान पर विवादास्पद विचारों को समर्थन देने के कारण जाने जाते हैं।
छात्रों तथा प्राध्यापकों ने इन बदलावों के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। पिछले अगस्त में जेएनयू शिक्षक संघ के 93 फीसदी सदस्यों ने प्रो. जगदीश कुमार के इस्तीफे की मांग के समर्थन में अपना वोट दिया था। लेकिन, उससे कोई फायदा नहीं हुआ। छात्रों ने फ्लैश-मॉब (बड़े पैमाने का स्वत: स्फूर्त प्रदर्शन) विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया और एक फिल्म भी तैयार की। इस फिल्म में उन्होंने कुलपति की विफलताओं का विवरण दिया है। इसके साथ ही नए नियमों को छात्रों और प्राध्यापकों द्वारा अदालत में चुनौती दी गई।
लेकिन, प्रो. जगदीश कुमार को भारत के हिंदू-राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ठोस समर्थन प्राप्त है। दशकों से यह संगठन इस संस्थान पर ‘वामपंथी तथा आजाद खयालों’ की मजबूत पकड़ के खिलाफ आक्रोशित रहा हैं। 2014 के आम चुनाव में इसी संघ परिवार के एक अन्य आनुषांगिक संगठन, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद, जेएनयू इनके आक्रोश का शिकार हुआ।
भाजपा के समर्थकों द्वारा कुछ ऑनलाइन की जा रही टिप्पणियों को देखने पर यह लगता है कि पिछले दिनों जेएनयू को जितना बर्बाद किया गया है, वे उससे संतुष्ट नहीं हैं। हाल के एक ट्वीट में आह्वान किया गया कि ‘जेएनयू पर सर्जिकल स्ट्राइक की सख्त जरूरत है।’ एक दूसरे ट्वीट में कहा गया है कि ‘जेएनयू उन देशद्रोहियों और कम्युनिस्ट गुंडों का गढ़ है, जो करदाताओं के पैसों पर मजा ले रहे हैं। अतः उनकी इस आरामगाह को ही पूरी तरह नष्ट कर देना चाहिए।’ आगामी मई में आम चुनाव होने वाला है, जिसमें अगले पांच साल के लिए फिर से भारतीय जनता पार्टी सत्तासीन हो सकती है। अपने ऊपर मंडराते इस खतरे को जेएनयू किस तरह महसूस कर रहा है, यह साफ जाहिर है। एक प्रोफेसर ने यह घोषणा की है कि यदि भाजपा फिर से चुनाव जीतती है, तो वह कैंपस छोड़ देंगे। उनका कहना है कि, ‘‘मेरा इस जगह से जितना लगाव है, उतनी ही दूर मैं इनके उन्माद से रहना चाहता हूं।’’
(यह लेख ‘द इकोनॉमिस्ट’ के जनवरी, 2019 के संस्करण में प्रकाशित आलेख ‘Roiled academy’ पर आधारित है)
(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/सिद्धार्थ)BY  ON 

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दफ्तर दिरंगाई कायदा,  2006 माहिती अधिकार कायदा २००५ अधिक प्रभावी होण्यासाठी महाराष्ट्र राज्य सरकारने ‘अभिलेख व्यवस्थापन कायदा’ व ‘दफ्तर दिरंगाई कायदा’ असे दोन महत्त्वपूर्ण कायदे २००६ साली संमत केले. यातील दफ्तर दिरंगाई कायद्याप्रमाणे शासकीय कर्मचाऱ्यांकडून शासकीय कर्तव्ये पार पाडताना जो विलंब होतो, त्याला प्रतिबंध घालण्यासाठी अशा विलंबासाठी संबंधित कर्मचाऱ्यांवर शिस्तभंगाच्या कारवाईची तरतूद आहे.या कायद्यामुळे सर्वसामान्य नागरिकांना शासन दरबारात किमान उभे राहण्याचे तरी धैर्य आले आहे आणि शासकीय अधिकाऱ्यांच्या बेमुर्वतखोरपणाला थोडासा का होईना चाप बसला आहे. मात्र, हा कायदा वापरताना या कायद्याच्या मर्यादाही लक्षात यायला लागल्या आहेत. पहिली मर्यादा म्हणजे ‘सदरहू कागदपत्रांचा आढळ होत नाही’ अशा प्रकारची शासकीय खात्यांकडून सर्रास मिळणारी उत्तरे. यावर प्रभावी उपाय असणाऱ्या अभिलेख व्यवस्थापन कायदा २००६ बद्दल आपण याच स्तंभातून काही महिन्यांपूर्वी माहिती घेतली, ज्यात कोणती कागदपत्रे किती दिवस सांभाळून ठेवावी व हा कालावधी संपण्याच्या आत ती नष्ट झाली तर संबंधित अधिकाऱ्याला दहा हजार रुपये दंड...

शिमला करार: भारत आणि पाकिस्तान यांच्यातील शांततेचा करार

शिमला करार: भारत आणि पाकिस्तान यांच्यातील शांततेचा करार शिमला करार (किंवा शिमला करारनामा) हा भारत आणि पाकिस्तान यांच्यात २ जुलै १९७२ रोजी पाकिस्तानच्या फाळणीच्या पार्श्वभूमीवर झालेला एक महत्त्वपूर्ण शांततेचा करार आहे. हा करार भारताच्या शिमला शहरात झाला होता. हा करार १९७१ च्या भारत-पाकिस्तान युद्धानंतर करण्यात आला. त्या युद्धात भारताने पाकिस्तानवर निर्णायक विजय मिळवून पाकिस्तानमधील पूर्व पाकिस्तान स्वतंत्र करून बांगलादेश म्हणून नवे राष्ट्र निर्माण केले. हा करार दोन देशांमध्ये शांतता प्रस्थापित करण्याच्या दृष्टिकोनातून अतिशय महत्त्वाचा होता. शिमला कराराची पार्श्वभूमी १९७१ चे भारत-पाकिस्तान युद्ध पूर्व पाकिस्तानमधील लोकांना राजकीय हक्क न मिळाल्यामुळे तेथील जनता स्वतंत्रतेसाठी लढा देत होती. भारताने त्या लढ्याला पाठिंबा दिला, आणि पाकिस्तानसोबत युद्ध झाले. हे युद्ध डिसेंबर १९७१ मध्ये झाले. भारताने पाकिस्तानचा पराभव केला आणि ९०,००० पेक्षा अधिक पाकिस्तानी सैनिक ताब्यात घेऊन त्यांना बंदी बनविले. युद्धानंतर दोन्ही देशांनी शांतता प्रस्थापित करण्यासाठी एकत्र येण्याचा निर्णय घेतला. यासाठी शिमला ये...

The Socio-Economic Impact of Major Scam Cases in India Since Independence.

  The Socio-Economic Impact of Major Scam Cases in India Since Independence. ©Dr.K.Rahual, 9096242452 Introduction Corruption has long been a formidable challenge to governance, economic stability, and institutional integrity in India. Since gaining independence in 1947, the country has made remarkable progress in numerous fields including science, technology, education, and global diplomacy. However, this progress has been repeatedly marred by a series of financial scams and corruption scandals, some of which have had devastating consequences for the economy, public trust, and administrative systems. The working paper titled “Major Scams in India Since Independence: A Comprehensive Analysis of Systemic Fraud and Its Socio-Economic Impact” aims to provide an in-depth exploration of selected high-profile scams that have shaped India’s political economy, administrative accountability, and public perception over the last few decades. This study focuses on thirteen of the mos...