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पहली दलित लेखिका मुक्ता सालवे

पहली दलित लेखिका मुक्ता सालवे की वेदना और आक्रोश

मुक्ता सालवे जोतीराव फुले-सावित्रीबाई फुले की पाठशाला की छात्रा थीं। महज 14 साल की उम्र में उन्होंने मांग महारों के दुखों, चुनौतियों और निवारण के उपायों के संबंध में विस्तृत निबंध लिखा, जिसे मराठी पत्रिका ज्ञानोदय ने प्रकाशित किया। सिद्धार्थ बता रहे हैं कि इस लेख में मुक्ता सालवे के मन में पेशवाई ब्राह्मणों के खिलाफ उठने वाले अंगार तो थे ही, मुक्ति का मार्ग भी था

पेशवाओं के राज में दलितों के शोषण-उत्पीड़न की कहानी, मुक्ता सालवे की जुबानी 

  • सिद्धार्थ
वह 15 फरवरी 1855 का दिन था, जब 14 वर्षीय पहली दलित लेखिका मुक्ता सालवे ने  ‘मांग महारों का दु:ख’ शीर्षक अपने निबंध में पेशवा राज ( ब्राह्मणों का राज) में मांग-महारों  की स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त किया था: “सुनो बता रही हूं कि हम मनुष्यों को गाय भैंसों से भी नीच माना है, इन लोगों ने। जिस समय बाजीराव का राज था, उस समय हमें गधों के बराबर ही माना जाता था। आप देखिए, लंगड़े गधे को भी मारने पर उसका मालिक भी आपकी ऐसी-तैसी किए बिना नहीं रहेगा, लेकिन मांग-महारों को मत मारो ऐसा कहने वाला भला एक भी नहीं था। उस समय मांग महार गलती से भी तालिमखाने के सामने से यदि गुजर जाए तो गुल- पहाड़ी के मैदान में उनके सिर को काटकर उसकी गेंद बनाकर और तलवार से बल्ला बनाकर खेल खेला जाता था” (सालवे, 2019: 77)।
पेशवाओं के राज के संदर्भ में अछूतों (मांग-महारों) के साथ होने वाले अमानवीय और क्रूर व्यवहार की चर्चा करते हुए डॉ. आंबेडकर ने भी लिखा है कि “मराठों के देश में पेशवाओं के शासनकाल में अछूत को उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी, जिस पर कोई सवर्ण हिंदू चल रहा हो, ताकि उसकी छाया पड़ने से हिंदू अपवित्र न हो जाए। उसके (अछूत) के लिए आदेश था कि वह एक चिह्न या निशानी के तौर पर कलाई या गले में काला धागा बांधे रहे, ताकि कोई हिंदू गलती से उसे छूने पर अपवित्र न हो जाय। 
पेशवाओं की राजधानी पुणे में अछूत के लिए यह आदेश था कि वह कमर में झा़डू बांधकर चले, ताकि वह जिस जमीन पर पैर रखे, वह उसके पीछे बंधी उस झाडू से साफ हो जाए, ताकि उस जमीन पर पैर रखने से कोई हिंदू अपवित्र न हो जाए। अछूत के लिए यह भी जरूरी था कि वह जहां जाए, अपने गले में मिट्टी की हांडी बांधकर चले और जब थूकना हो, तो उसी में थूके, ताकि जमीन पर पड़ी अछूत की थूक पर  अनजाने में किसी हिंदू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र न हो जाय” (आंबेडकर, 2019: 41-42)।
मराठी भाषा में मांग-महारों का दु:ख शीर्षक निबंध लिखने वाली यह दलित लेखिका सावित्रीबाई फुले और जाोतीराव फुले द्वारा पुणे में खोले गए स्कूल की 14 वर्षीय छात्रा मुक्ता सालवे थीं। उन्होंने तीन वर्षों तक पढाई की थी। उन्हें आधुनिक युग की पहली दलित लेखिका कहा जाता है। 
उनके इस निबंध का पहला भाग 15 फरवरी 1855 और दूसरा भाग 1 मार्च 1855 मुंबई से निकलने वाली पत्रिका ज्ञानोदय में प्रकाशित हुआ था। यह ऐतिहासिक दस्तावेज महात्मा फुले गौरव ग्रंथ ( नरके, 2006: 747-748) में संग्रहित है। यह निबंध  पुणे में जोतीराव फुले की उपस्थिति में मुक्ता सालवे ने पढ़ा था। उस समय ज्ञानोदय पत्रिका में इस निबंध के संपादक भी मौजूद थे। इसकी पुष्टि इस निबंध के इस संपादकीय से होती है, जिसमें लिखा गया है कि “यह निबंध मांग जाति की एक लड़की ने लिखा है। कुछ दिन पहल में पुणे गया था। पुणे में अतिशूद्र विद्यार्थियों की पाठशाला के संस्थापक राजश्री जोतिबा माली ने उस लड़की से यह निबंध हमारे सामने पढ़वाया था। उसी समय हमारी आखों के सामने राजश्री जोतिबा द्वारा किए गए श्रम का फल साक्षात दिखाई दिया। अभी उनकी पाठशाला के विषय में बताने का अवकाश नहीं है, किंतु हमारे सुधी पाठकों को यह निबंध पढ़कर उनकी पाठशाला की प्रगति का अहसास हो जाएगा” (सालवे, 2019: 76)।
इस निबंध के पहले अनुच्छेद में लेखिका सभी मनुष्यों के सृजनकर्ता को एक मानते हुए अपने लिखने की कोशिश के बारे में बताती है। अगले ही अनुच्छेद में वह ब्राह्मणों के पाखंड़ को उजागर करती है और कहती है कि जिस वेद को हमारे द्वारा पढ़ने से महापाप हो जाता है, फिर उस वेद के आदेशों-नियमों का हमें क्यों पालन करना चाहिए और इतना ही नहीं वह यह भी कहती है कि इस तर्क के आधार पर तो हमें वेदों के सभी आदेशों-नियमों का पालन करना बंद कर देना चाहिए। वह लिखती है: “ लड्डूखोर पेटू ब्राह्मण लोग कहते हैं कि वेद सिर्फ हमारी बपौती हैं, जिसे सिर्फ हम ही देख सकते हैं। इस बात को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हम अछूत लोगों की कोई धर्म पुस्तक नहीं है। तब तो यह साफ हो जाता है कि हम धर्म रहित हैं। ब्राह्मणों के मतानुसार वेदों को हमारे द्वारा पढ़े जाने पर महापातक घटित होता है, फिर  उसके अनुसार आचरण किए जाने पर तो हमारे पास कितने दोष पैदा हो जाएंगे?” ( सालवे, 2019: 77)।
लेखिका यह तर्क प्रस्तुत करती हैं कि यदि सभी मनुष्य एक ईश्वर के संतान है, तो यह कैसे हो सकता है कि एक संतान को तो सबकुछ मिल जाए और शेष संतानों को सभी अधिकारों से वंचित कर दिया जाए। यह तो सरासर अन्याय की बात है: “ देखिए एक पिता से चार संतानों का जन्म हुआ। सभी के धर्मशास्त्रों का ऐसा सुझाव है कि उस पिता की संपत्ति का चारों में एक समान बांट दिया जाए, लेकिन किसी एक को ही यह संपत्ति मिले और बाकी बचे हुए लोग पशुवत जीते रहें, यह सबसे बड़ी अन्याय की बात है” ( सालवे, 2019: 77)।
मुक्ता सालवे को ब्राह्मणों के अन्यायी और विवेकहीन चरित्र का अहसास है। भले ही वे ज्ञान और न्याय की बाते करते हों,लेकिन वास्तव में उनका अन्त: करण संवेदनहीन एवं अन्यायी है: “सोवळे (चितपावन ब्राह्मणों द्वारा पूजा-पाठ के समय पहने जाने वाला पीताम्बर रंग का रेशमी वस्त्र) अंगवस्त्र को परिधान कर नाचने वाले इन लोगों का हेतु मात्र इतना ही है कि वे अन्य लोगों से पवित्र एकमात्र वे हैं। ऐसा मानकर वे चरम सुख की अनुभूति भी करते हैं, लेकिन हमसे बरती जाने वाली छुआछूत से, हम पर बरसने वाले दुखों से इन निर्दयी लोगों के अन्त: करण भी नहीं पिघलते” (सालवे, 2019: 77)। 
मुक्ता सालवे को हिंदुओं द्वारा अछूत एवं बहिष्कृत घोषित कर दी गई, मांग जाति की लड़की होने के चलते इस तथ्य का गहरा अहसास है कि अछूत होने के चलते मांग-महारों को किन-किन वंचनाओं और अपमानों का सामना करना पड़ता है। किस चरम सीमा तक उनका शोषण-उत्पीड़न किया जाता है। वह लिखती है कि, “इस अस्पृश्यता के कारण हमें नौकरी करने पर पाबंदी लगी हुई है। नौकरी की इस बंदी से हम धन भला कहां से कमा पाएंगे? इससे यह खुलासा भी होता है कि हमारा दमन और शोषण चरम तक किया जाता है” (सालवे, 2019: 77)।
वह ब्राह्मणों की संवेदनहीनता को धिक्कारते हुए बताती है कि दलित समाज और दलित महिलाओं को इस ब्राह्मणवादी राज में किस कदर दुखों का सामना करना पड़ता है। ब्राह्मणों से वह यह भी कहती है, जरा एक बार इन दुखों-कष्टों का अहसास एवं अनुभव करके देखो। वह अपनी बातों को इन शब्दों में बयान करती हैं: “पंडितों तुम्हारे (अपने) स्वार्थी, और पेटभरू पांडित्य को एक कोने में गठरी बांधकर धर दो और जो मैं कह रही हूं, उसे कान खोलकर ध्यान से सुनो। जिस समय हमारी स्त्रियां जचकी (बच्चे को जन्म देना) हो रही होती हैं, उस समय उन्हें  छत भी नसीब नहीं होती, इसलिए उन्हें धूप, बरसात और शीत लहर के उपद्रव से होने वाले दु:ख तकलीफों का अहसास खुद के अनुभवों से जरा करके देखो” (सालवे, 2019: 77)।
पेशवाराज में ब्राह्मणों का अन्याय इस कदर है कि यदि किसी मांग-महार के बच्चे का सिर कोई ब्राह्मण फोड़ दे, तब भी वह कोई शिकायत किसी से नहीं कर सकता है, क्योंकि अपना पेट भरने के लिए मांग-महार उन्हीं के ऊपर निर्भर हैं। दलितों की इस मार्मिक व्यथा को मुक्ता सालवे ने इन शब्दों में व्यक्त करती हैं: “ब्राह्मणों के लड़के पत्थर मारकर जब किसी मांग-महार के बच्चों का सिर फोड़ देते हैं, तब भी मांग-महार सरकार में शिकायत लेकर नहीं जाते, क्योंकि उनका कहना है कि उन्हें जूठन उठाने के लिए इन्हीं लोगों के घूरे पर जाना पड़ता है। हाय, हाय, हे भगवान ये दु:खों का हिमालय! इस जुल्म की दास्तां को विस्तार से लिखूं तो रोना आता है” ( सालवे, 2019: 77)।
भारत में अंग्रेजों के आगमन और 1818 में ब्राह्मणों के पेशवाराज की समाप्ति का इतिहासकार जो मूल्यांकन करते हों, लेकिन इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि अंग्रेजी राज शूद्रों-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक रोशनी लेकर आया था। उनके लिए शिक्षा के दरवाजे पहली बार खुले थे। इस तथ्य की स्वीकृति जोतीराव फुले और आंबेडकर के लेखन से भी होती है। सावित्रीबाई फुले ने भी अपने कविताओं में अंग्रेजी राज और अंग्रेजी भाषा की प्रशंसा करते हुए उसे ब्राह्मणवाद-मनुवाद से मुक्ति दिलाने वाले के रूप में याद किया है और अंग्रेजी भाषा को अंग्रेजी मैया पुकारा है।आधुनिक युग की पहली दलित लेखिका मुक्ता सालवे भी अंग्रेजी सरकार को भगवान द्वारा भेजे गए उपकारकर्ता के रूप में याद करती है और अंग्रेजों के प्रति इस बात के लिए आभार प्रकट करती है कि उन्होंने मांग-महारों के दुख को कम करना शुरू किया। उसने लिखा कि, “भगवान ने हम पर उपकार करते हुए दयालु अंग्रेज सरकार को यहां भेज दिया, जिस कारण हमारे दु:खों का निवारण शुरू हो गया है” (सालवे, 2019: 77)।
अंग्रेजी सरकार के आने के बाद मांग-महारों के जीवन में क्या परिवर्तन आया है, इसका वर्णन मुक्ता सालवे ने इन शब्दों में किया है: “मांग-महारों में यदि कोई बढ़िया ओढ़कर चलता था, तब भी इनकी आंखों फूटे नहीं सुहाता ‘ये तो चोरी का है ये इसने चुराया होगा’ ऐसा बढ़िया ओढ़ना तो सिर्फ ब्राह्मण ही ओढ़ सकते हैं। यदि मांग-महार ओढ़ लेंगे तो धर्म भ्रष्ट हो जायेगा, ऐसा कहकर वे उसे खंबे से बांधकर पीटते थे, लेकिन अब अंग्रेजी राज में जिसके पास भी पैसा होगा, वह खरीदेगा। ऊंचे वर्ण के लोगों द्वारा किए गए अपराध का दंड मांग-महारों के सिर मढ़ दिया जाता था, वह भी बंद हुआ। जुल्म से भरी बेगारी को भी बंद किया गया। कहीं-कहीं छू जाने से स्पर्श हो जाने का खुलापन भी आया है” (सालवे, 2019: 78)।
पेशवा राज की समाप्ति और ब्रिटिश राज की स्थापना के बाद समाज में आई आधुनिक चेतना और नवजागरण की चर्चा भी मुक्ता सालवे ने किया है। अपने इस निबंध में वह रेखांकित करती है कि कैसे अंग्रेजों के आने बाद ही अछूतों एवं बहिष्कृतों के लिए स्कूल खोले गए और अंग्रेजी सरकार ने ऐसे स्कूल खोलने में मदद किया। ऐसी ही एक पहली पाठशाला पुणें मे 1848 में जोतीराव फुले ने खोली, जिसकी एक विद्यार्थी इस निबंध की लेखिका मुक्ता सालवे भी थीं। ऐसी पाठशालाओं के  बारे में वह लिखती है कि हमारे प्रिय बंधुओं ने मांग-महारों के बच्चों के लिए पाठशालाएं लगाई हैं और इन पाठशालाओं को दयालु अंग्रेज सरकार मदद करती है। इसलिए इन पाठशालाओं में मांग-महारों को पढ़ने का अवसर मिला है।
अपने निबंध के अंत में मुक्ता सालवे मांग-महारों के उज्जवल भविष्य की उम्मीद करते हुए उनका आह्वान करते हुए कहती है कि ज्ञान ही वह औषधि है, जिससे तुम लोगों की सभी बीमारियों का निदान हो सकता है। तुम्हें जानवरों जैसी जिंदगी से मुक्ति मिल सकती है और तुम्हारे दुखों का अंत हो सकता है: “दरिद्रता और दु: खों से पीड़ित, हे मांग महार लोगों, तुम रोगी हो, तब अपनी बुद्धि के लिए ज्ञानरूप औषधि लो यानी तुम अच्छे ज्ञानी बनोगे, जिससे तुम्हारे मन की कुकल्पनाएं जायेंगी और तुम नीतिवान बनोगे,तब तुम्हारी जो जानवरों जैसी रात-दिन की हाजरी लगाई जाती है, वह भी बंद होगी। अब पढ़ाई करने  के लिए अपनी कमर कस लो” (सालवे, 2019: 78)।
पहली दलित लेखिका का यह निबंध 19 वीं शताब्दी के भारत के इतिहास को समझने का एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है, जिससे हम समझ सकते हैं कि भारत में शोषण-उत्पीड़न की देशज ब्राह्मणवादी व्यवस्था को प्रारंभिक दौर में कैसे अंग्रेजी शासन ने कमजोर किया, जिसके चलते इसके नीचे पीस रहे अछूतों एवं बहिष्कृतों के जीवन में उम्मीद की एक रोशनी जगी और उनके लिए शिक्षा एवं ज्ञान के दरवाजे खुले। जिसका एक जीवंत प्रमाण मांग जाति की लड़की मुक्ता सालवे का 165 वर्ष पूर्व लिखा गया यह निबंध भी है।
कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि सिर्फ 3 वर्षों तक अध्ययन करने वाली 14 वर्षीय लड़की कैसे इतनी गहन संवेदना, उन्नत वैचारिकी और सधे शिल्प में निबंध लिख सकती है। इसका उत्तर ज्ञानोदय में इस निबंध के संपादनकर्ता ने इन शब्दों में दिया है: “इस निबंध की भाषा और उसकी विषय-वस्तु के पहले छह बिंदुओं में थोड़े बहुत सुधार किए गए थे, लेकिन जब इस निबंध को दुनिया के सामने लाने को हुआ, तब जिसे उसने अपनी स्वबुद्धि से लिखा है, वही लोगों द्वारा पढ़कर समझा जाए, जिस पर उसके अध्ययन और बुद्धिमानी का अनुमान लगाया जा सके, इसलिए इस निबंध में किसी प्रकार बदलाव न करते हुए उसे जस का तस प्रस्तुत  किया गया है” (सालवे, 2019: 76)।
संदर्भ –1. सालवे, मुक्त. (2019). दलित स्त्रीलेखनका पहला दस्तावेज. स्त्रीकाल, वाल्युम-3, अंक-1-2.
2. आंबेडकर, डॉ. भीमराव. (2019). जाति का विनाश. नई दिल्ली: फारवर्ड प्रेस.
3. नरके, हरि. (संपादित) (2006). महात्मा फुले गौरव ग्रन्थ. मुंबई: महाराष्ट्र शासन.

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