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नथूराम गोडसे

पटेल ने तो गोडसे समर्थकों को 1948 में ही पागलों का झुंड और कायर कहा था

संसद में 27 नवंबर को भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर द्वारा गोडसे के महिमामंडन पर देश मे व्यापक निदात्मक प्रतिक्रिया हुयी और कल ही सरकार ने इन सारी प्रतिक्रियाओं से असहज होते हुये, आज 28 नवम्बर को बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर को रक्षा मंत्रालय की समिति से हटा दिया गया है। सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बताने के संदर्भ में बीजेपी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि संसद में कल उनका बयान निंदनीय है.बीजेपी कभी भी इस तरह के बयान या विचारधारा का समर्थन नहीं करती है। उन्होंने कहा कि हमने तय किया है कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर को रक्षा की सलाहकार समिति से हटा दिया जाएगा और इस सत्र में उन्हें संसदीय पार्टी की बैठकों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

इस संबंध में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जी ने जो कहा है वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा,

“नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहे जाने की बात तो दूर हम उन्हें देशभक्त मानने  की सोच को ही कंडेम ( निंदा ) करते हैं। महात्मा गांधी हम लोगों के आदर्श हैं । वे पहले भी हमारे मार्गदर्शक थे और भविष्य में भी मार्गदर्शक रहेंगे।”
जब 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी, तो उस समय पूरा देश ही नहीं पुरी दुनिया स्तब्ध हो गयी थी। जैसे ही गांधी के हत्या की खबर लॉर्ड माउंटबेटन को मिली, उन्होंने तुरन्त हत्यारे का धर्म पूछा। जब उन्हें बताया गया कि हत्यारा नाथूराम गोडसे है और एक हिन्दू तो माउंटबेटन ने ऊपर देखा और कहा, हे ईश्वर तुमने देश को बचा लिया। भारत उस समय अपने इतिहास के साम्प्रदायिक उन्माद के  सबसे बुरे दौर में चल रहा था। माउंटबेटन को लगा कि अगर कही हत्यारा मुस्लिम होता तो देश मे भयंकर खूनखराबा हो जाता। वैसे भी उस समय देश विभाजन के बाद के दंगे भारत और पाकिस्तान दोनों ही नवस्वतंत्र देशों में चल ही रहे थे। देश कानून व्यवस्था के साथ साथ लाखो शरणार्थियों के निरापद पुनर्वास की समस्या से जूझ रहा था।
सरदार पटेल उस समय देश के गृहमंत्री थे। गृहमंत्री होने के नाते वे खुद को गांधी जी के प्रति, इस सुरक्षा चूक के लिये जब कि इस घटना के पहले भी गांधी हत्या के कुछ विफल प्रयास हो चुके थे, दोषी मान रहे थे। पर उस समय तक वीआईपी सुरक्षा का उतना तामझाम होता नहीं था और गांधी तो ऐसे सुरक्षा इंतजाम चाहते भी नहीं थे। हत्या के बाद 2 फरवरी को गांधी जी की स्मृति में,  दिल्ली में एक शोकसभा हुयी। उसमे नेहरू, पटेल, सहित कांग्रेस के सभी बड़े नेता उपस्थित थे। नेहरू के भाषण के बाद पटेल ने जो कहा वह हत्यारे और हत्यारे के गिरोह की मानसिकता को उजागर कर देता है।
गांधी की हत्या के बाद आयोजित उस शोकसभा में सरदार पटेल के दिए गए भाषण को प्रज्ञा ठाकुर द्वारा संसद में हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के बाद याद करना महत्वपूर्ण  है। सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू के बाद उस शोकसभा में, जब अपनी बात कहने खड़े हुए तो उनकी आंखों में आंसू थे। उनकी आवाज़ लरज रही थी। वह बोलने की हालत में नहीं थे। लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ढाढस बढ़ाया और उन्हें कुछ कहने के लिये कहा। वे उस समय, नेहरू के बाद, देश के दूसरे सबसे बड़े नेता थे। उनका बोलना ज़रूरी भी था और उनकी मजबूरी भी
उन्होंने कहा था ” जब दिल दर्द से भरा होता है, तब जबान खुलती नहीं है और कुछ कहने का दिल नहीं होता है. इस मौके पर जो कुछ कहने को था, जवाहरलाल  ने कह दिया, मैं क्या कहूं ? ”

आगे सरदार पटेल ने कहा

” हां, हम यह कह सकते हैं कि यह काम एक पागल आदमी ने किया. लेकिन मैं यह काम किसी अकेले पागल आदमी का नहीं मानता. इसके पीछे कितने पागल हैं? और उनको पागल कहा जाए कि शैतान कहा जाए, यह कहना भी मुश्किल है. जब तक आप लोग अपने दिल साफ कर हिम्मत से इसका मुकाबला नहीं करेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा. अगर हमारे घर में ऐसे छोटे बच्चे हों, घर में ऐसे नौजवान हों, जो उस रास्ते पर जाना पसंद करते हों तो उनको कहना चाहिए कि यह बुरा रास्ता है और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते।” (भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 158)
उन्होंने कहा था – ” जब मैंने सार्वजनिक जीवन शुरू किया, तब से मैं उनके साथ रहा हूं. अगर वे हिंदुस्तान न आए होते तो मैं कहां जाता और क्या करता, उसका जब मैं ख़्याल करता हूं तो एक हैरानी सी होती है. तीन दिन से मैं सोच रहा हूं कि गांधी जी ने मेरे जीवन में कितना परिवर्तन किया? इसी तरह से लाखों आदमियों के जीवन में उन्होंने किस तरह से बदला? सारे भारतवर्ष के जीवन में उन्होंने कितना बदला. यदि वह हिंदुस्तान में न आए होते तो राष्ट्र कहां जाता? हिंदुस्तान कहां होता? सदियों हम गिरे हुए थे. वह हमें उठाकर कहां तक ले आए? उन्होंने हमें आजाद बनाया। ” (भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 157)

सरदार पटेल ने गोडसे और उसके समर्थकों को सबसे बड़ा कायर करार दिया था. पटेल ने कहा था,

” उसने एक बूढ़े बदन पर गोली नहीं चलाई, यह गोली तो हिंदुस्तान के मर्म स्थान पर चलाई गई है. और इससे हिंदुस्तान को जो भारी जख्म लगा है, उसके भरने में बहुत समय लगेगा. बहुत बुरा काम किया. लेकिन इतनी शरम की बात होते हुए भी हमारे बदकिस्मत मुल्क में कई लोग ऐसे हैं तो उसमें भी कोई बहादुरी समझते हैं.। ”
महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर 4 फरवरी 1948 को प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस प्रतिबंध के छह महीने बाद सरदार पटेल ने संघ के संस्थापक गोलवलकर को एक पत्र लिखा था। यह पत्र पढ़ कर, यह जाना जा सकता है कि, पटेल की संघ और देश की एकता के बारे में क्या विचार थे।

सरदार पटेल द्वारा संघ के संस्थापक गोलवलकर को लिखा गया पत्र

नई दिल्ली, 11 सितंबर, 1948
औरंगजेब रोड
भाई श्री गोलवलकर,
आपका खत मिला जो आपने 11 अगस्त को भेजा था. जवाहरलाल ने भी मुझे उसी दिन आपका खत भेजा था. आप राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर विचार भली-भांति जानते हैं. मैने अपने विचार जयपुर और लखनऊ की सभाओं में भी व्यक्त किए हैं. लोगों ने भी मेरे विचारों का स्वागत किया है. मुझे उम्मीद थी कि आपके लोग भी उनका स्वागत करेंगे, लेकिन ऐसा लगता है मानो उन्हें कोई फर्क ही न पड़ा हो और वो अपने कार्यों में भी किसी तरह का परिवर्तन नहीं कर रहें. इस बात में कोई शक नहीं है कि संघ ने हिंदू समाज की बहुत सेवा की है. जिन क्षेत्रों में मदद की आवश्यक्ता थी उन जगहों पर आपके लोग पहुंचे और श्रेष्ठ काम किया है. मुझे लगता है इस सच को स्वीकारने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी. लेकिन सारी समस्या तब शुरू होती है जब ये ही लोग मुसलमानों से प्रतिशोध लेने के लिए कदम उठाते हैं. उन पर हमले करते हैं. हिंदुओं की मदद करना एक बात है लेकिन गरीब, असहाय लोगों, महिलाओं और बच्चों पर हमले करना बिल्कुल असहनीय है.
इसके अलावा देश की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस पर आपलोग जिस तरह के हमले करते हैं उसमें आपके लोग सारी मर्यादाएं, सम्मान को ताक पर रख देते हैं. देश में एक अस्थिरता का माहौल पैदा करने की कोशिश की जा रही है. संघ के लोगों के भाषण में सांप्रदायिकता का जहर भरा होता है. हिंदुओं की रक्षा करने के लिए नफरत फैलाने की भला क्या आवश्यक्ता है? इसी नफरत की लहर के कारण देश ने अपना पिता खो दिया. महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई. सरकार या देश की जनता में संघ के लिए सहानुभूति तक नहीं बची है. इन परिस्थितियों में सरकार के लिए संघ के खिलाफ निर्णय लेना अपरिहार्य हो गया था.
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रतिबंध को छह महीने से ज्यादा हो चुके हैं. हमें ये उम्मीद थी कि इस दौरान संघ के लोग सही दिशा में आ जाएंगे. लेकिन जिस तरह की खबरें हमारे पास आ रही हैं उससे तो यही लगता है जैसे संघ अपनी नफरत की राजनीति से पीछे हटना ही नहीं चाहता. मैं एक बार पुन: आपसे आग्रह करूंगा कि आप मेरे जयपुर और लखनऊ में कही गई बात पर ध्यान दें. मुझे पूरी उम्मीद है कि देश को आगे बढ़ाने में आपका संगठन योगदान दे सकता है बशर्ते वह सही रास्ते पर चले .आप भी ये अवश्य समझते होंगे कि देश एक मुश्किल दौर से गुजर रहा है. इस समय देश भर के लोगों का चाहे वो किसी भी पद, जाति, स्थान या संगठन में हो उसका कर्तव्‍य बनता है कि वह देशहित में काम करे. इस कठिन समय में पुराने झगड़ों या दलगत राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है. मैं इस बात पर आश्वस्त हूं कि संघ के लोग देशहित में काम कांग्रेस के साथ मिलकर ही कर पाएंगे न कि हमसे लड़कर. मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि आपको रिहा कर दिया गया है. मुझे उम्मीद है कि आप सही फैसला लेंगे. आप पर लगे प्रतिबंधों की वजह से  मैं संयुक्त प्रांत सरकार के जरिए आपसे संवाद कर रहा हूं. पत्र मिलते ही उत्तर देने की कोशिश करूंगा।
आपका
वल्लभ भाई पटेल
आज पटेल की एक एक बात सच साबित हो रही है। गांधी की आलोचना पर कोई आपत्ति नहीं है। गांधी जी की विफलताओं पर भी चर्चा होती है और होनी भी चाहिये। पर उनकी या किसी की भी हत्या को औचित्यपूर्ण केवल बीमार मानसिकता का व्यक्ति ही ठहरा सकता है। गांधी का जैसा व्यापक जनप्रभाव देश मे था वैसा दुनियाभर में कम ही नेताओ का अपनी जनता पर होता है। आज दुनियाभर में भारत के वे प्रतीक बन चुके हैं। गांधी की विचारधारा, स्वाधीनता संग्राम और समाजोत्थान के लिये किये गए उनके कार्यो  से  कोई सहमत हो, या न हो, उनकी निंदा करे, आलोचना करे, पर आज की स्थिति में गांधी इन सबसे परे जा चुके हैं। कायर और बीमार लोगों का गिरोह ही किसी हत्यारे का महिमामंडन कर सकता है। पटेल ने सच ही कहा था।
© विजय शंकर सिंह

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गांधी के जिस हत्यारे को आजकल महिमामंडित करने का प्रयास किया जा रहा है, उसके बारे में यह जानना दिलचस्प है कि वह गांधी की हत्या से पहले तक क्या था? क्या वह चिंतक था, ख्याति प्राप्त राजनेता था, हिंदू महासभा का जिम्मेदार पदाधिकारी या स्वतंत्रता सेनानी था?
महात्मा गांधी की हत्या के मुख्य अभियुक्त नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने के जो प्रयास इन दिनों किए जा रहे हैं, वे नए नहीं हैं। गोडसे का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बताया जाता रहा है और इसीलिए गांधीजी की हत्या के बाद देश के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था।
हालांकि संघ गोडसे से अपने संबंधों को हमेशा नकारता रहा है और अपनी इस सफाई को पुख्ता करने के लिए वह गोडसे को गांधी का हत्यारा भी मानता है और उसके कृत्य को निंदनीय करार भी देता है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद ही गोडसे को महिमामंडित करने का सिलसिला तेज हो गया?
इस सिलसिले में एकाएक उसका मंदिर बनाने के प्रयास शुरू हो गए। उसकी 'जयंती’ और 'पुण्यतिथि’ मनाई जाने लगी। उसे 'चिंतक’ और यहां तक कि 'स्वतंत्रता सेनानी’ और 'शहीद’ भी बताया जाने लगा। सवाल है कि पांच साल पहले केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के साथ ही गोडसे भक्तों के इस पूरे उपक्रम के शुरू होने को क्या महज संयोग माना जाए या कि यह सबकुछ किसी सुविचारित योजना के तहत हो रहा है?
गांधी के जिस हत्यारे को इस तरह महिमामंडित किया जा रहा है, उसके बारे में यह जानना दिलचस्प है कि वह गांधी की हत्या से पहले तक क्या था? क्या वह चिंतक था, ख्याति प्राप्त राजनेता था, हिंदू महासभा का जिम्मेदार पदाधिकारी या स्वतंत्रता सेनानी था? दरअसल नाथूराम गोडसे कभी भी इतनी ऊॅंचाइयों के दूर-दूर तक भी नहीं पहुंच पाया था। पुणे शहर के उसके मोहल्ले सदाशिव पेठ के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि तब वह चालीस वर्ष की आयु के समीप था।
नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान कामचलाऊ था। अंग्रेजी का ज्ञान होने का तो सवाल ही नहीं उठता। उसके पिता विनायक गोडसे डाकखाने में बाबू थे, जिनकी मासिक आय पांच रुपये थी। नाथूराम अपने पिता का लाडला था क्योंकि उसके पहले जन्मे उनके सभी पुत्र मर गए थे।
इसीलिए अंधविश्वास के वशीभूत होकर मां ने नाथूराम की परवरिश बेटी की तरह की। उसे नाक में नथ पहनाई जिससे उसका नाम नाथूराम हो गया। नाथूराम के बाद उसके माता-पिता को तीन और पुत्र पैदा हुए थे जिनमें एक था गोपाल, जो नाथूराम के साथ गांधी-हत्या में सह अभियुक्त था।
नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती। उस समय उसके हमउम्र लोग भारत में क्रांति का अलख जगा रहे थे, जेल जा रहे थे, शहीद हो रहे थे। स्वाधीनता संग्राम की इस हलचल से नाथूराम का जरा भी सरोकार नहीं था। अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड में लगा रहता था। इस सिलसिले में उसने सांगली शहर में दर्जी की दुकान खोल ली थी। उसके पहले वह बढ़ई का काम भी कर चुका था और फलों का ठेला भी लगा चुका था।
पुणे में मई 1910 में जन्मे नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी सितम्बर 1944 में जब हिंदू महासभा के नेता लक्ष्मण गणेश थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। उस समय महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुंबई जाने वाले थे। चौतीस वर्षीय नाथूराम, थट्टे के सहयोगी प्रदर्शनकारियों में शरीक था।
उसका इरादा ख़ंजर से बापू पर हमला करने का था, लेकिन आश्रमवासियों ने उसे पकड़ लिया था। उसके जीवन की दूसरी बड़ी घटना थी एक वर्ष बाद यानी 1945 की, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था। तब नाथूराम पुणे की किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप मे वहां उपस्थित था।
गांधीजी की हत्या के बाद जब नाथूराम के पुणे स्थित आवास तथा मुंबई में उसके के घर पर छापे पडे थे तो मारक अस्त्रों का भंडार पकडा गया था जिसे उसने हैदराबाद के निजाम पर हमला करने के नाम पर बटोरा था। यह अलग बात है कि इन असलहों का उपयोग कभी नहीं किया गया। मुंबई और पुणे के व्यापारियों से अपने हिंदू राष्ट्र संगठन के नाम पर नाथूराम ने बेशुमार पैसा जुटाया था जिसका उसने कभी कोई लेखा-जोखा किसी को नहीं दिया।
उपरोक्त सभी तथ्यों का बारीकी से परीक्षण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि अत्यंत कम पढ़ा-लिखा नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाड़े पर रखा हुआ था।
जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था। यह अड़तीस वर्षीय बेरोज़गार, अविवाहित और दिमागी बीमारी से त्रस्त नाथूराम किसी भी मायने में सामान्य मन:स्थिति वाला व्यक्ति नहीं था। उसने 30 जनवरी, 1948 से पहले गांधीजी की हत्या का प्रयास 20 जनवरी, 1948 को भी किया था। अपने सहयोगी मदनलाल पाहवा के साथ मिलकर नई दिल्ली के बिडला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था। पाहवा पकड़ा गया था, मगर नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था।
दस दिन बाद वह अपने अधूरे काम को पूरा करने करने के लिए फिर दिल्ली आया था। नाथूराम को उसके प्रशंसक एक धर्मनिष्ठ हिंदू के तौर पर भी प्रचारित करते रहे हैं लेकिन तीस जनवरी की ही शाम की एक घटना से साबित होता कि नाथूराम कैसा और कितना धर्मनिष्ठ था? गांधीजी पर तीन गोलियां दागने के पूर्व वह उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया था।
पोती मनु ने नाथूराम से एक तरफ हटने का आग्रह किया था क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना के लिए देरी हो गई थी। धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम भजनावाली जमीन पर गिर गई थी। लेकिन नाथूराम उसे रौंदता हुआ ही आगे बढ़ गया था, 20वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने।
जो लोग नाथूराम गोडसे से जरा भी सहानुभूति रखते हैं उन्हें इस निष्ठुर हत्यारे के बारे में एक और प्रमाणित तथ्य पर गौर करना चाहिए। गांधीजी को मारने के दो सप्ताह पहले नाथूराम ने काफी बड़ी राशि का अपने जीवन के लिए बीमा करवा लिया था ताकि उसके पकड़े और मारे जाने पर उसका परिवार आर्थिक रूप से लाभान्वित हो सके। एक कथित ऐतिहासिक मिशन को लेकर चलने वाला व्यक्ति बीमा कंपनी से हर्जाना कमाना चाहता था।
अदालत में मृत्युदंड से बचने के लिए नाथूराम के वकील ने दो चश्मदीद गवाहों के बयानों में विरोधाभास का सहारा लिया था। उनमें से एक ने कहा था कि पिस्तौल से धुआं नहीं निकला था। दूसरे ने कहा था कि गोलियां दगी थी और धुआं निकला था। नाथूराम के वकील ने दलील दी थी कि धुआं नाथूराम की पिस्तौल से नहीं निकला, अत: हत्या किसी और की पिस्तौल से हो सकती है। मामले को कुछ मुंबइयां फिल्मों जैसा रचने का एक भौंडा प्रयास था। मकसद था कि नाथूराम संदेह का लाभ पाकर छूट जाए।
नाथूराम का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी की हत्या के बाद पकड़े जाने पर खाकी निकर पहने नाथूराम ने अपने को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। इसके पीछे उसका मकसद देशवासियों के रोष का निशाना मुसलमानों को बनाना और उनके खिलाफ हिंसा भड़काना था।
ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हत्यारे के नाम का उल्लेख नहीं किया लेकिन उनके संबोधन के तुरंत बाद गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आकाशवाणी भवन जाकर रेडियो पर देशवासियों को बताया कि बापू का हत्यारा एक हिंदू है। ऐसा करके सरदार पटेल ने मुसलमानों को अकारण ही देशवासियों का कोपभाजन बनने से बचा लिया।
कोई भी सच्चा क्रांतिकारी या आंदोलनकारी जेल में अपने लिए सुविधाओं की मांग नहीं करता है। लेकिन नाथूराम ने गांधीजी को मारने के बाद अंबाला जेल के भीतर भी अपने लिए सुविधाओं की मांग की थी, जिसका कि वह किसी भी तरह से हक़दार नहीं था। वैसे भी उसे स्नातक या पर्याप्त शिक्षित न होने के कारण पंजाब जेल नियमावली के मुताबिक साधारण कैदी की तरह ही रखा जाना था।
नाथूराम और उसके सह अभियुक्तों की देशभक्ति के पाखंड की एक और बानगी देखिए: वह आजाद भारत का बाशिंदा था और उसे भारतीय कानून के तहत ही उसके अपराध के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। फिर भी उसने अपने मृत्युदंड के फैसले के ख़िलाफ़ लंदन की प्रिवी कांउसिल में अपील की थी। उसका अंग्रेज वकील था जान मेगा। अंग्रेज जजों ने उसकी अपील को खारिज कर दिया था।
गांधीजी की हत्या का षडयंत्र रचने में नाथूराम का भाई गोपाल गोडसे भी शामिल था, जो अदालत में जिरह के दौरान खुद को गांधी-हत्या की योजना से अनजान और बेगुनाह बताता रहा। अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। गोपाल जेल में हर साल गांधी जयंती के कार्यक्रम में बढ-चढकर शिरकत करता था। ऐसा वह प्रायश्चित के तौर पर नहीं बल्कि अपनी सजा की अवधि में छूट पाने के लिए करता था, क्योंकि जेल के नियमों के मुताबिक ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है।
तो इस तरह गोपाल गोडसे अपनी सजा की पूरी अवधि के पहले ही रिहाई पा गया था। महात्मा गांधी को मुस्लिम परस्त मानने वाले इस तथाकथित हिंदू ह्दय सम्राट के पुणे में सदाशिव पेठ स्थित घर का नंबर 786 था जिसके मायने होते हैं : बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम। सदाशिव पेठ में वह अक्सर गुर्राता था कि उसका भाई नाथूराम शहीद है। वह खुद को भी एक राष्ट्रभक्त आंदोलनकारी बताता था और बेझिझक कहा करता था कि एक अधनंगे और कमजोर बूढ़े की हत्या पर उसे कोई पश्चाताप अथवा अफ़सोस नहीं है।
नाथूराम के साथ जिस दूसरे अभियुक्त को फांसी दी गई थी वह था नारायण आप्टे। नाथूराम का सबसे घनिष्ठ दोस्त और सहधर्मी। ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी कर चुका आप्टे पहले पहले गणित का अध्यापक था और उसने अपनी एक ईसाई छात्रा मनोरमा सालवी को कुंवारी माँ बनाने का दुष्कर्म किया था। हालांकि उसकी पत्नी और एक विकलांग पुत्र भी था। शराबप्रेमी आप्टे ने गांधी हत्या से एक दिन पूर्व यानी 29 जनवरी, 1948 की रात पुरानी दिल्ली के एक वेश्यालय में गुजारी थी और उस रात को उसने अपने जीवन की यादगार रात बताया था। यह तथ्य उससे संबंधित अदालती दस्तावेजों में दर्ज है।
गांधी हत्याकांड का चौथा अभियुक्त विष्णु रामकृष्ण करकरे हथियारों का तस्कर था। उसने अनाथालय में परवरिश पाई थी। गोडसे से उसका परिचय हिंदू महासभा के कार्यालय में हुआ था। एक अन्य अभियुक्त दिगम्बर रामचंद्र बडगे जो सरकारी गवाह बना और क्षमा पा गया, पुणे में शस्त्र भण्डार नामक दुकान चलाता था। नाटे कद वाले बडगे ने अपनी गवाही में विनायक दामोदर सावरकर को हत्या की साजिश का सूत्रधार बताया था लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में सावरकर बरी हो गए थे।
इन दिनों कुछ सिरफिरे और अज्ञानी लोग योजनाबद्ध तरीके से नाथूराम गोडसे को उच्चकोटि का चिंतक, देशभक्त और अदम्य नैतिक ऊर्जा से भरा व्यक्ति प्रचारित करने में जुटे हुए हैं। यह प्रचार सोशल मीडिया के माध्यम से चलाया जा रहा है। उनके इस प्रचार का आधार नाथूराम का वह दस पृष्ठीय वक्तव्य है जो बड़े ही युक्तिसंगत, भावुक और ओजस्वी शब्दों में तैयार किया गया था और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढ़ा था। इस वक्तव्य में उसने बताया था कि उसने गांधीजी को क्यों मारा। कई तरह के झूठ से भरे इस वक्तव्य में दो बड़े और हास्यास्पद झूठ थे।
एक यह कि गांधीजी गोहत्या का विरोध नहीं करते थे और दूसरा यह कि वे राष्ट्रभाषा के नहीं, अंग्रेजी के पक्षधर थे। दरअसल, यह वक्तव्य खुद गोडसे का तैयार किया हुआ नहीं था। वह कर भी नहीं सकता था, क्योंकि न तो उसे मराठी का भलीभांति ज्ञान था, न ही हिंदी का, अंग्रेजी का तो बिल्कुल भी नहीं। अलबत्ता उस समय दिल्ली में ऐसे कई हिंदूवादी थे जिनका हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार और प्रवाहमयी शैली का अच्छा अभ्यास था। इसके अलावा वे वैचारिक तार्किकता में भी पारंगत थे। माना जा सकता है कि उनमें से ही किसी ने नाथूराम की ओर से यह वक्तव्य तैयार कर जेल में उसके पास भिजवाया होगा और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढ़ा होगा।
आप्टे की फांसी के दिन (15 नवम्बर 1949) अम्बाला जेल के दृश्य का आंखों देखा हाल न्यायमूर्ति जीडी खोसला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, जिसके मुताबिक गोडसे तथा आप्टे को उनके हाथ पीछे बांधकर फांसी के तख्ते पर ले जाया जाने लगा तो गोडसे लड़खड़ा रहा था। उसका गला रूधा था और वह भयभीत और विक्षिप्त दिख रहा था।
आप्टे उसके पीछे चल रहा था। उसके भी माथे पर डर और शिकन साफ दिख रही थी। तो ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे ये हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदृष्टा, जिन्होंने एक निहत्थे बूढे, परम सनातनी हिंदू और राम के अनन्य-आजीवन भक्त का सीना गोलियों से छलनी कर दिया। ऐसे हत्यारों को प्रतिष्ठित करने के प्रयास तो शर्मनाक है ही, ऐसे प्रयासों पर सत्ता में बैठे लोगों की चुप्पी भी कम शर्मनाक और ख़तरनाक नहीं।
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
(नोट : यह लेख महात्मा गांधी की हत्या के सह अभियुक्त और नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे की पुस्तक 'गांधी वध क्यों?’, गांधी हत्या की पुलिस में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर), गांधी हत्याकांड के अभियुक्तों पर मुकदमे की कार्यवाही, गांधी हत्याकांड में सह अभियुक्त और बाद में सरकारी गवाह बने रामचंद्र बडगे के कोर्ट में दिए गए बयान, मुकदमे की सुनवाई करने वाले जज न्यायमूर्ति जीडी खोसला की संस्मरणात्मक पुस्तक 'द मर्डर ऑफ महात्मा’ में दी गई जानकारियों पर आधारित है।)

02 Oct 2019, 
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लड़कियों जैसी हुई थी गोडसे की परवरिश, नथ पहनने के चलते नाम पड़ा नाथूराम

दिल्ली के बिड़ला हाउस में 30 जनवरी, 1948 को शाम 5 बजकर 17 मिनट पर महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा होने वाली थी. तभी प्रार्थना स्थल की ओर बढ़ते गांधी के सामने एक शख्स आया और उनपर 9एमएम की बरेटा पिस्टल से तीन बार फायर किया. ढाई फीट की दूरी से दागी गई इन गोलियों से भारत के राष्ट्रपिता का देहांत हो गया. इसके साथ ही अलग-अलग जगहों पर 14 सालों से किए जा रहे महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास आखिरकार स्वतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली में सफल हो गए. महात्मा गांधी की हत्या ही स्वतंत्र भारत की पहली बड़ी राजनीतिक हत्या थी.


कौन था नाथूराम?
गोडसे एक मध्यमवर्गीय चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ था. चितपावन का मतलब होता है, 'आग में पवित्र किए गए.' इनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि ये आर्यों के सीधे वंशज हैं तो कुछ कहते हैं कि ये यहूदियों की एक जाति हैं, जो आगे चलकर ब्राह्मण बन गए. वैसे जानने वाली बात यह भी है कि ब्राह्मणों की इसी जाति से गोपाल कृष्ण गोखले और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भी आते थे.



बहरहाल, नाथूराम के पिता विनायक भारतीय डाकसेवा में एक छोटे पद पर थे. गोडसे के मां-बाप की पहली तीन संतानें पैदा होने के कुछ ही वक्त में चल बसी थीं. सिर्फ दूसरी संतान, जो एक बेटी थी, ही जी सकी थी. इसके बाद इस दंपति ने एक ज्योतिषी से सलाह ली. ज्योतिषी ने उन्हें एक 'श्राप' मिले होने की बात कही और बताया कि, 'अपने बेटे को आप तभी बचा पाएंगे, जब उसका पालन-पोषण लड़की की तरह करें.'

नाथूराम के मां-बाप ने इसके बाद कई धार्मिक अनुष्ठान किए और मन्नत मानी कि जन्म के बाद वो अपने बेटे की बाईं नाक छिदवाएंगे और उसे नथ पहनाएंगे. इसके बाद 19 मई, 1910 को जन्मे नाथूराम के साथ ऐसा ही किया गया. इसी नथ के चलते उनके बेटे का नाम नाथूराम पड़ा. हालांकि बड़े होने पर उसकी नथ निकाल दी गई. नाथूराम के तीन भाई और दो बहने थीं.


नाथूराम में कैसे पनपी हीन भावना?
नाथूराम को नथ पहनने और लड़कियों की तरह रखने के चलते उसके बचपन के साथी अक्सर चिढ़ाते थे. इससे वह धीरे-धीरे अकेला होता गया. हालांकि कुछ ही दिनों बाद लोगों ने यह भी कहा कि उसपर कुल देवता आते हैं. ऐसे में पास-पड़ोस में कुछ लोग उसे मूर्ख समझते थे, तो कुछ दैवीय शक्तियों वाला. इन दोनों ही वजहों से नाथूराम अंतर्मुखी होता गया.नाथूराम मराठी माध्यम से पढ़ा और अंग्रेजी उसके लिए बड़ी समस्या थी. वह मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं पास कर सका, जिसके चलते उसे नौकरी भी नहीं मिली. एक बार उसे बढ़ईगिरी का काम मिला, लेकिन वह उससे खुश नहीं था तो रत्नागिरी चला आया. वहीं उसकी मुलाकात सावरकर से हुई.



एक बार नाथूराम हैदराबाद में हिंदुओं के अधिकारों को लेकर एक रैली निकाल रहा था. इसी दौरान उसे गिरफ्तार किया गया. वह एक साल जेल में रहा. जेल से जब वह छूटा तो लौटकर पूना आया. इसी दौरान सावरकर एक राष्ट्रीय पार्टी बनाने के लिए प्रयासरत थे, इसमें वे केवल मराठी ब्राह्मणों को शामिल कर रहे थे

1940 में इन्हीं सबके बीच नाथूराम, नारायण डी. आप्टे नाम के आदमी से मिला. जो हिंदू महासभा के लिए काम कर रहा था. दोनों के बीच कई बातों पर असहमति थी, लेकिन दोनों ताउम्र बेहतरीन दोस्त रहे. इन दोनों ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सावरकर के विचारों पर बने एक दल को ज्वाइन कर लिया. दल में ज्यादातर पूना के ही लोग थे. यह दल कांग्रेसियों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों में भी शामिल रहता था और कहा जाता है कि नाथूराम को भी हिंसा की ट्रेनिंग यहीं से मिली. नाथूराम और उसका दोस्त आप्टे इस दल का एक अख़बार भी निकालते थे. और दोनों गांधी को हिंदू विरोधी मानते थे और बेहद नापसंद करते थे.


क्यों की गांधी की हत्या?
तुषार गांधी अपनी किताब 'लेट्स किल गांधी' में लिखते हैं कि नाथूराम हमेशा परिवार बसाने से इनकार करता था और जब उसकी शादी के रिश्ते आते तो उन्हें नकार देता था. नाथूराम हमेशा ही आदमियों के इर्द-गिर्द रहता था. दरअसल नाथूराम को कुछ लोगों ने संत जैसा होने का भ्रम दिला रखा था, इसलिए वह कुछ हद तक औरतों से भी नफरत करने लगा था.



इसी किताब के अनुसार, इसी बीच नाथूराम और आप्टे मिलकर अपनी पार्टी का जो अख़बार निकाला करते थे, उसपर संकट के बादल मंडराने लगे क्योंकि इंवेस्टर्स पैसा देने से मना कर रहे थे. इसी बीच आप्टे ने नाथूराम को उसका पुराना लक्ष्य याद दिलाया, 'चलो गांधी को मारते हैं'.



इसके आगे जो भी हुआ, भारत की स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है. गांधी की हत्या की घटना पर 'लेट्स किल गांधी' किताब लिखने वाले उनके परपोते तुषार गांधी किताब के चैप्टर 'हत्यारे' की शुरुआत में हत्यारों का परिचय देते हुए लिखते हैं -



'सभी लोग जो गांधी की हत्या में शामिल थे, स्वभाव में बहुत अलग-अलग थे. पर उन सबके अंदर एक बात बिल्कुल एक जैसी थी. सारे ही धर्मांध थे. एक औरतों से नफरत करने वाला रोगी (नाथूराम गोडसे), एक जिंदादिल पर व्याभिचारी (नारायण दत्तात्रेय आप्टे), एक अनाथ फुटपाथ पर रहने वाला बदमाश लड़का जिसने कट्टर बनकर खुद को बड़ा आदमी बनाना चाहा, एक धूर्त हथियारों का व्यापारी (दंडवते) और उसका नौकर, एक बेघर शरणार्थी जो बदला लेना चाहता था (मदनलाल पाहवा), एक भाई जो अपने भाई को हीरो की तरह मानकर पूजता था (गोपाल गोडसे) और एक डॉक्टर जिसका बचाने से ज्यादा मारने में विश्वास था (डॉ. दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे). इनका हथियार था एक बंदूक, जो कि गांधी के हत्यारे के हाथ में पहुंचने से पहले तीन महाद्वीपों में घूम चुकी थी.'

9 एमएम की बरेटा पिस्टल की कहानी, जिससे महात्मा गांधी की हत्या हुई

एक ब्रिटिश आर्मी के भारतीय लेफ्टिनेंट कर्नल वीवी जोशी के हाथों यह पिस्टल मुसोलिनी की सेना के एक अफसर के आत्मसमर्पण करने के बाद उससे छीनकर लाई गई थी. बाद में जोशी ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया की मिलिट्री में ऑफिसर हो गए.



वहां से ये पिस्तौल जगदीश प्रसाद गोयल के पास कैसे पहुंची? ये अब तक रहस्य ही है. हालांकि जांच में पता चला कि गोयल ने इसे दंडवते को बेचा, जिसने नाथूराम गोडसे के लिए इसे खरीदा. इसके बाद महात्मा गांधी की हत्या से ठीक दो दिन पहले 28 जनवरी की शाम दंडवते ने भरी हुई पिस्तौल और साथ में सात कारतूस नाथूराम गोडसे को एक होम्योपैथी के डॉक्टर परचुरे के घर सौंपे. फिर इसी बेरेटा पिस्टल से नाथूराम ने दो दिन बाद महात्मा गांधी की हत्या कर दी.



(सोर्सेज- तुषार गांधी, लेट्स किल गांधी; तपन घोष, गांधी मर्डर ट्रायल; जगन फडणीस, महात्म्याची अखेर; मनोहर मुलगांवकर पेपर्स, पीएल ईनामदार पेपर्स, जस्टिस खोसला पेपर्स)


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